लिख मौत के नाम का नामा तेरे घर को ढूंढता हूं ,ग़म से भरा क़तरा हूं अपने समन्दर को ढूंढता हूं।
इक जीत कर जंग क्यूं दिल अभिमान से लबरेज़ तेरा, मैं भी शहंशाह पोरष हूं सिकन्दर को ढूंढ्ता हूं ।
अपनों की मेरी बुलंदी मेरे ही दम से आसमां पे , सबका मुकद्दर सजा अपने मुकद्दर को ढूंढता हूं ।
जब पास थी तवज्जो दे सका ना हमसफ़र को , जब जा चुकी दूर तो उसके तस्व्वुर को ढूंढ्ता हूं।
हमने बनाया जिन्हें जिनके कारण हमने की लड़ाई , यारो उसी बे-ज़ुबां मजबूर ईशवर को ढूंढ्ता हूं।
ज़र जाह ऐसा कमाया, रक्स रखता है ज़माना , अब चाह पाई सुकूं की तो कलन्दर को ढूंढ्ता हूं।
हर रात मैंने अंधेरों के दम से डकैती की दानी , घर में डकैती पड़ी तो मुनव्वर को ढूंढ्ता हूं।
नामा ॥ख़त॥ ज़र-धन॥ जाह-इज़्ज़त॥ रक्स-इर्ष्या॥ मुनव्वर -प्रकाशमान शय॥
Thursday, 24 June 2010
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