मेरे भी घर मे रहता है इक बूढा नक्सली,ना जाने क्यूं वो एक ज़माने से है दुखी।
क्या चाहिये उसे वो बताता नहीं मुझे , मैं कैसे जानूं उसको है किस चीज़ की कमी।
शायद नयी फ़िज़ाओं से उसको ग़ुरेज़ है,उसको अजीज़ ग़ुज़रे ज़माने की ज़िन्दगी ।
उपरी चमक दमक उसे बिलकुल नहीं पसन्द,वो धोती कुरता पगडी मे ही पाये खुशी।
जायज़ है उसका सोचना बदलाव किस लिये, जो तेज़ी से बदल चुके वे भी तो हैं दुखी।
ये सोचते हैं हम कि पिछ्ड सा गया है वो,वो हमको देख सोचता है ये कैसी रफ़्तगी ।
शायद ये दो विचारों का टकराव है सनम,हम गो नये ज़माने वो जाती हुई सदी ।
सम्मान उनकी ख्वाहिशों की होनी चाहिये,ना खेला जाये खेल मुसलसल सियासती ।
सरकारें उनके दर्द को समझे सलीके से , बदलाव लाने की करें ना कोई हडबडी ।
जायज़ नहीं कोई भी जबरदस्ती उनके साथ,बहती रहेगी वरना यहां खून की
Thursday, 20 May 2010
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