असमां से मेरी दुश्मनी नहीं है ,
मेरे घर में मगर रौशनी नहीं है।
चाँद को छत पे उतरा तो हूँ ,
साथ उसके मगर चांदनी नहीं है ।
मै खुदा बनने की कर रहाँ हूँ कोशिश ,
मेरे अंदर अभी आदमी नहीं है ।
रोज़ करता हूँ मझधार की इबादत ,
साहिलों के लिए बंदगी नहीं है ।
और की ख्वाहिश में भटक चुके हैं हम सब ,
जबकि हमको ज़रा भी कमी नहीं है। {डॉ संजय दानी दुर्ग}
Thursday, 20 May 2010
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