जवानी जब भी चढती है ,बग़ावत खूब करती है।
मुहब्बत की शिलाओं पर ,वफ़ा की परतें जमती हैं।
रगों मे दर्द बढ्ता है , निगाहें पानी भरती हैं ।
झुलायें, नेकी को कब तक,बदी भी तो मचलती है।
समंदर की शराफ़त बस, किनारों तक उमडती है।
हसीनों की ज़मानत मे,हवस की लौ भडकती है।
परीन्दे को भगाओ मत,वो अपनी बेटी जैसी है।
शराबी के बहकने मे ,कहां साकी की मर्जी है।
चरागों के मकां मे क्यूं,हवायें मस्त रहती हैं।
Tuesday 25 May 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment